कुछ दिनो से अमृता प्रीतम, इमरोज और साहिल लुधियानवी को बहुत क़रीब से महसूस किया और जाना और देखा की लोगों के जीवन में कुछ ख़ास लोगों के जीवन की झलक मिलती है कही कुछ ज़्यादा और कही कम। कुछ लोग अमृता और इमरोज की तरह वक़्त से कुछ आगे होते है और कुछ सुनसान गुमनाम गलियों की तरह ख़त्म हो जाते है।
बहुत जज़्बा चाहिए खुद अपने हाथों से अपने दामन को आग लगाने के लिए और उफ़्फ़ किए बिना पल पल जलने और पिघल जाने के लिए।
अमृता ने लिखा भी की “मैं खुश हूँ की मैंने समाधि के चैन का वरदान नही पाया, भटकने की बेचैनी का शाप पाया”
आख़िर कौन सा पुष्प होगा जो कहे कि “ चाह नही मैं सुरबाला के गहनो में गुँथा ज़ाऊ या फिर चाह नही देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ। कुछ विरले ही माखन लाल चतुर्वेदी सरीखी प्यास और तड़प रखते होगे और कुचले जाने में जीवन का परम सार समझते होंगे।
बहुत ढूँढ़े मैने मगर कम ही मिले शायद ना के बराबर, कविताओं और शायरी के क़द्रदान मिलना बहुत आसान है मगर उसके दर्द को जीना बहुत मुश्किल और अलग दुनिया की बात।
मगर जो कुछ अलग जी जाते है वो इतिहास लिख जाते है और कुछ ऐसा कर जाते है जिसे वक़्त भी ललचायी और हैरान निग़ाहो से देखता है की कौन था ये जो वक़्त की रेट पर पत्थरों से इबारत लिख गया, ना मिटाए ही मिटती है और ना जलाए ही जलती है।
प्रेम को समझ पाये ऐसी कुववत हर किसी में कहा, जो मिट के भी आबाद हो जाए और आबाद में भी प्यासा रह जाए प्रेम के ऐसे ही गहरे राज़ है।
कबीर दास ने बहुत भाव से कह दिया की:
“सब धरती कागद करूँ लेखनी सब बनराय।
सात समुंदर की मसि करूँ, गुरुगुण लिखा ना जाए॥”
ये अभिव्यक्ति गुरु के ग़ुणो से ज़्यादा गुरु से शिष्य के अपार और निष्काम प्रेम को प्रदर्शित करती है और यहाँ भी वही स्तिथी है, सब प्रेम में ही पागल है, कोई गुरु में प्रेमी को ढूँढ रहा है और कोई प्रेमी में गुरु को मगर कह कोई कुछ नही पा रहा की प्रेम की जगह क्या है। बस इतना ही कह पा रहा है की प्रेम को वर्णित नही किया जा सकता और बस यही से प्रेम की विराट सत्ता प्रकट हो जाती है। जो प्रेम के रूप को पहचान गया उसने अपने ही सत्य स्वरूप को जान लिया।
अब चाहे क़ीमत कोई भी देनी पड़े कुछ अमृता बन जाते है, कुछ सोनी महिवाल, कुछ कबीर और कुछ बुद्ध हो जाते है, वक़्त मीरा के गीत गाता है और साहिर की पंक्तियों में पल दो पल का शायर बन के खो जाता है।
मगर रह जाती है, कुछ कहानियाँ जीने सुनकर और पड़कर वक़्त भी कुछ नम आँखों से दामन को भिगो लेता है और उन रेत के किनारे पड़े पत्थरों को अपने आंसुओं से हर रोज़ भिगो कर चमकता है, सजाता है और आने वाले हर मुसाफ़िर को उनकी अमर प्रेम कथा सुनता है।
मगर जो कुछ अलग जी जाते है वो इतिहास लिख जाते है और कुछ ऐसा कर जाते है जिसे वक़्त भी ललचायी और हैरान निग़ाहो से देखता है की कौन था ये जो वक़्त की रेट पर पत्थरों से इबारत लिख गया, ना मिटाए ही मिटती है और ना जलाए ही जलती है।
प्रेम को समझ पाये ऐसी कुववत हर किसी में कहा, जो मिट के भी आबाद हो जाए और आबाद में भी प्यासा रह जाए प्रेम के ऐसे ही गहरे राज़ है।
कबीर दास ने बहुत भाव से कह दिया की:
“सब धरती कागद करूँ लेखनी सब बनराय।
सात समुंदर की मसि करूँ, गुरुगुण लिखा ना जाए॥”
ये अभिव्यक्ति गुरु के ग़ुणो से ज़्यादा गुरु से शिष्य के अपार और निष्काम प्रेम को प्रदर्शित करती है और यहाँ भी वही स्तिथी है, सब प्रेम में ही पागल है, कोई गुरु में प्रेमी को ढूँढ रहा है और कोई प्रेमी में गुरु को मगर कह कोई कुछ नही पा रहा की प्रेम की जगह क्या है। बस इतना ही कह पा रहा है की प्रेम को वर्णित नही किया जा सकता और बस यही से प्रेम की विराट सत्ता प्रकट हो जाती है। जो प्रेम के रूप को पहचान गया उसने अपने ही सत्य स्वरूप को जान लिया।
अब चाहे क़ीमत कोई भी देनी पड़े कुछ अमृता बन जाते है, कुछ सोनी महिवाल, कुछ कबीर और कुछ बुद्ध हो जाते है, वक़्त मीरा के गीत गाता है और साहिर की पंक्तियों में पल दो पल का शायर बन के खो जाता है।
मगर रह जाती है, कुछ कहानियाँ जीने सुनकर और पड़कर वक़्त भी कुछ नम आँखों से दामन को भिगो लेता है और उन रेत के किनारे पड़े पत्थरों को अपने आंसुओं से हर रोज़ भिगो कर चमकता है, सजाता है और आने वाले हर मुसाफ़िर को उनकी अमर प्रेम कथा सुनता है।
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